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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

जैसी भावना, तैसा फल

अपने ऊपर जितनी भगवान्की दया है इतनी दया थोड़े आदमियोंपर ही है। दुनियामें जितने लोग हैं, प्राय: आदमियोंको झूठ, कपट करना पड़ता है। अपने यहाँ तो उदारताके साथ व्यवहार करने का प्रस्ताव पास करते हैं।

सरकार के जितने कानून हैं, उनमें एक बाक के लिए आपको छूट दी है। लोग घूस देते हैं, अपने फल, मिठाई आदि दे दो, किन्तु कोई गैरकानूनी काम करना ही नहीं है। परिश्रम करो, चाहे काम बन्द हो जाय, परन्तु गैरकानूनी काम मत करो।

कठिनता सहे, कठिनता सहनेका फल ही परमात्माकी प्राप्ति है। सुगमताका फल नरककी प्राप्ति है।

कागज नहीं मिले, बैठे रहो, गेहूँ नहीं मिले, मत बेचो बैठे रहो; खर्चा लगे, लगने दो। कठिनाई सहन करना ही मुक्तिका मार्ग है।

पाप प्रकाशित करे तो पाप क्षय हो जाता है। पुण्य प्रकाशित करे तो पुण्य क्षय हो जाता है। प्रचारमें क्षयकी शक्ति है। दो नीति है-

एक तो नाम कामना, संसार में खूब प्रचार करना। इससे क्या लाभ होता है। ख्याति होनेसे सबपर प्रभाव पड़ता है। एक नीति यह है कि अपनी बड़ाई करना, नंगे होकर नाचना है।

प्रश्न-देखनेमें तो आता है यदि अपना प्रचार नहीं किया जाय तो प्रसिद्धि नहीं होती।

उत्तर-अपने नाम नहीं कमाना है नाम-रूप तो झूठी चीज है अपने सच्ची चीज कमानी है। सच्ची चीज हैं भगवान्। मान, बड़ाईकी व्याख्यानोंमें तो निन्दा कर दी, अब हृदयसे निन्दा करनी चाहिये। यानी अपने काममें लाये, निराश न हो कि हम नहीं कर सकेंगे। आपलोगोंकी निराशासे हम डरते हैं।

प्रश्न-बड़ाईवाला टेढ़ा काम है।

उत्तर-टेढ़ा मत मानो, बहुत दिन माना अब तो मत मानो, टेढ़ेको सीधा करो। हम सबमें यह दोष है आगेसे सुधार करो। अपने जो काम करते हैं उसकी प्रशंसा हो तो उसे छिपाना चाहिये, अपनी संस्थाकी बड़ाईसे बचना चाहिये। लोग तो बड़ाई करते-करवाते हैं हमें छिपानी चाहिये। अपनी पत्रिकाका नाम कल्याण, कल्याण कल्पतरु है। नाम बड़ा है गुण नहीं, नाम छोटा चाहिये गुण बड़ा होना चाहिये।

हमारे तो मनमें बहुत बातें आती हैं, ऊँचे-से-ऊँचे मार्गमें चलनेकी बात आती है। आपलोग सहायता करें। निष्कामको निष्काम सिद्ध करना सकाम भाव है। अपने कामकी प्रशंसा करना मैला लगाना है।

साधन प्रारब्धका फल नहीं है, अपितु कर्तव्य है। वह भावी चीज नहीं है, करनेसे हो सकता है, इसलिये उसे करना चाहिये। किन्तु ऐसा होनेपर भी चेष्टाकी सफलतामें ईश्वरकी कृपा माननी चाहिये। कर्ताको अपनेको निमित्तमात्र मानना चाहिये, क्योंकि इसमें अभिमान नहीं आ सकता। कार्यकी सफलता ईश्वरके हाथ है।

इससे यह निर्णय हुआ कि साधन बढ़ सकता है। ईश्वरकी कृपासे बढ़ता है या प्रयत्नसे? इसमें मानना चाहिये कि प्रयत्न निमित्तमात्र है, बढ़ता है ईश्वरकी कृपासे।

साधनको पवित्र बनानेके लिये भी यह एक चीज है, वास्तवमें भी यही बात है। गंगाकी कृपा सबके ऊपर है, स्नान करनेवाला लाभ उठा लेता है, नहीं करनेवाला नहीं उठा पाता। लाभ गंगाकी कृपासे ही होता है। लाभ मिलेगा प्रयत्नसे, प्रयत्न की सफलतामें ईश्वरका हाथ है। इसलिये ईश्वरकी कृपा माननी चाहिये।

इन्द्रियोंका संयम करना अपना कर्तव्य है। जितना भोग आकर प्राप्त हुआ है वह भोगनेमें कितनी स्वतन्त्रता है इसमें क्या मान्यता करनी चाहिये? संयम करना चाहिये, संयममें सफलता होगी। सफलतामें ईश्वरका हाथ है। अपने संयम नहीं करेंगे तो ईश्वरकी कृपा काम करेगी या नहीं?

प्रचारकका पद बहुत ऊँचे दर्जेका है। इसमें लाभ और खतरा दोनों ही बहुत है। प्रचार ज्यादा होनेमें ईश्वरकी दया समझे। अभिमान न आने दे। अपने निमित्तमात्र बने, प्रचारका श्रेय ईश्वरकी कृपापर रखे तो अधिक हो सकता है। ईश्वरकी कृपापर भरोसा रखे।

जो खुद प्रचारक बनकर चेष्टा करता है, उसमें प्रचार कम भी हो सकता है। कारण परमात्मा तो स्वयं प्रचार करते, वह बीच में आप प्रचारक बन गया। कोई भी कार्य हो उसकी प्रतिक्रिया होगी, वह कहेगा मैंने प्रचार किया, भगवान् कहते हैं नहीं। यदि वह समझेगा कि मैं निमित्तमात्र हूँ भगवान्की कृपासे होता है तो प्रचार अधिक होगा।

औषध लेना कर्तव्य है, किन्तु न ले तो पाप नहीं है और हानि भी नहीं है, किन्तु संयम न करे तो हानि है और पाप है, क्योंकि मनुष्यके नाते जो कर्तव्य है उसे नहीं करता। मनुष्य जीना चाहे तो जी नहीं सकता और मरना चाहे तो मर नहीं सकता। वास्तव में मृत्यु जब होनी है तभी होगी। सामान्य बात यही है, किन्तु विशेष बात यह है कि आयु घट-बढ़ भी सकती है। भगवान्की भक्ति करे या अनुष्ठान आदि करे तो आयु बढ़ सकती आदमीकी ही होती है।

मृत्युका निमित्त बदल सकता है, किन्तु आयु नहीं। यह बात निश्चित नहीं कही गयी है कि आपकी इस प्रकार मृत्यु होगी। प्रचारकमें दम्भ हो तो बहुत ज्यादा हानि है, ज्यादा खतरा है। जितना दम्भ हो उतनी हानि है। मान, बड़ाईकी इच्छा, रुपया और शरीरके आराम-स्वार्थ तीनों ही बात न हो तो बहुत ज्यादा लाभ है। प्रचारसे तो लाभ है ही। प्रचारमें आनेवाले दोषोंसे हानि है, उनसे बचकर प्रचार करना चाहिये।

गीताका पाठ करता है, माला फेरता है, गीता-पाठसे, माला फेरनेसे हानि नहीं होती, हानि होती है दम्भ करनेसे। मैं वैश्य दूँ तो ज्यादा डूब खाना है, क्योंकि यह ब्राह्मणकी वृत्ति है। दम्भके लिये करूं तो और ज्यादा खतरा है। मान, बड़ाईके लिये करूं तो थोड़ा खतरा है।

ब्राह्मणके लिये भी खतरा है यदि वह यह इच्छा कर ले कि रुपया ही प्रधान है। सेवा ही प्रधान है यह मान ले तो थोड़ा खतरा है। उसे खतरा नहीं जो रुपयोंको, सेवाको फेंकता है। बाध्य होकर स्वीकार करना पड़ता है। इस प्रकारके त्यागमें वैश्यको भी खतरा नहीं है। ब्राह्मणको तो है ही नहीं।

मेरी यह नियत हो कि ब्राह्मणकी जीविका नष्ट हो तो मुझे खतरा है। जितनी हानि है सब स्वार्थसे ही है। मेरी माँ है, पूज्य है, नित्य प्रणाम करना चाहिये। जन्मके समय पहले मेरे पैर निकले थे। माँके चमक पड़ गयी, चमक ठीक करनेके लिये उनकी छातीके पैर लगाता हूँ तो क्या वह पाप है? पाप होते हुए भी उसकी पुण्य संज्ञा हो जायगी।

भक्तिके सिद्धान्तसे और ज्ञानके सिद्धान्तसे जो कुछ है सब भगवान्का स्वरूप है। यही ऊँची-से-ऊँची भावना है। यही ऊँची-से-ऊँची साधना है। सभी पदार्थोंमें ऊँची-से-ऊँची भावना की जा सकती है और नीची-से-नीची भावना की जा सकती है। उसका परिणाम भावनापर ही निर्भर है।

जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥

संसार भावनामय है। मनुष्यका स्वरूप भी भावनामय है, लाभ भी भावनाके अनुसार ही होता है। ऊँची-से-ऊँची ईश्वर भावना है, दो नम्बरमें साधु भावना है। नीची-से-नीची भावना पापमय भावना है।

चाहे जितना लाभ उठाओ सीमा ही नहीं है। आप पूछे कि क्या मुक्तिसे भी ज्यादा लाभ मिल सकता है? हाँ मिल सकता है। जबतक संसारमें एक भी जीव है, तबतक लाभ उठाया ही जा सकता है। अपनी आत्माकी उन्नति कर लेना उन्नतिका अन्त नहीं हो गया। न पतनका अन्त है, न उन्नतिका, उन्नतिका अन्त तभी है जब सबका कल्याण हो जाय।

ईश्वरबुद्धिसे ऊँची बुद्धि नहीं हो सकती। जड़में करें या चेतनमें ? सबमें करो। इसमें हानि भी हो सकती है क्या ? हानि नहीं हो सकती, यह सच्ची बात है। धातुसे खयाल किया जाय तो ज्ञानके सिद्धान्तसे सब जग ईश्वरका स्वरूप है। भक्तिके स्वरूपसे सब ईश्वरका स्वरूप है। अच्छी भावनाका बुरा फल हो नहीं सकता, इसलिये अच्छी भावना करनी चाहिये।

नामदेवजीने कुत्तेमें भगवान्की भावना की तो कोई बुरा फल नहीं हुआ। भोगबुद्धि पतन करनेवाली है ईश्वरबुद्धि नहीं। प्रह्लादने खम्भमें भगवान्की भावना की, भगवान् प्रकट हो गये। यह भावनाका फल है।

परमात्माकी प्राप्ति करानेकी अपनेमें शक्ति नहीं होते हुए भी कभी परमात्माकी प्राप्ति करानेके लिये भगवान् हमें निमित बनायें तो ना भी न करे। भगवान्ने कहा है-

निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।
(गीता ११।३३)

इसी प्रकार जो आदमी अपनी शक्ति नहीं समझता कि मैं किसीका कल्याण कर सकता हूँ वह भले ही करा सकता है, किन्तु जो यह अभिमान रखता है कि मैं दूसरेको परमात्माकी प्राप्ति करा सकता हूँ वह तो नहीं करा सकता। जो यह समझता है कि मैं नहीं करा सकता, दूसरा आदमी आरोप करता है कि यह करा सकता है। इस प्रकार कोई उसे निमित्तमात्र बना ले तो बना ले, एक तो निमित्तमात्रकी यह बात है। भगवान् इसके लिये हमें निमित्त बनायें कि दूसरोंको अपनी प्राप्तिके लिये तुम्हें निमित्त बनाता हूँ तो मना मत करना।

दूसरी बात यह है कि भगवान् हमें निमित नहीं बनायें तो इस काममें स्वयं निमित्त बन जाय और मान ले कि भगवान्ने ही निमित्त बनाया है। भगवान् कहें कि मैंने तो तुम्हें यह पदवी नहीं दी तो उत्तर दे कि मैंने बलात् छीन ली।

जैसे कोई आदमी मरनेवाला हो, वह हमें निमित्त बनाकर भजन नाम सुनना चाहे, वह नहीं बुलाये तो स्वयं अपने ही चलाकर कहें कि कीर्तन सुनायें, गीता सुनायें वह कहे सुनाओ, इस जगह अपने स्वयं निमित्त बने। इस प्रकारकी कुछ जगह चेष्टा की, एक आदमीकी भी मुक्ति हो गयी तो अपना तो जीवन सफल हो गया। मनुष्यका जीवन कल्याण करनेके लिये मिला था, अपने अपना नहीं कर सके तो दूसरेका कर दिया, फिर यह धोखा नहीं मानना चाहिये कि अपना कल्याण नहीं हुआ।

कोई भी कहे कि आपमें शक्ति है, इस बातको स्वीकार न करे। पूछे कि आप ईश्वरकी प्राप्ति करा सकते हैं क्या? कहे नहीं, मेरी सामथ्र्य नहीं है, ईश्वरकी कृपासे ही हो सकती है।

परमात्माकी प्राप्तिका पात्र किस तरह होऊँ ? परमात्माकी शरण होओ। यह निमित्त बनना हुआ, अपनी शक्ति मानकर निमित्त मत बनो।

वह कहे हमें तो आपने ही परमात्माकी प्राप्ति करा दी, वह बकता रहे उसपर ध्यान मत दो। एक आदमी गाली देता है, एक प्रशंसा करता है दोनोंको मत सुनो।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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